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जब कभी मेरे क़दम सू-ए-चमन आए हैं - हसन नईम कविता - Darsaal

जब कभी मेरे क़दम सू-ए-चमन आए हैं

जब कभी मेरे क़दम सू-ए-चमन आए हैं

अपना दुख दर्द लिए सर्व ओ समन आए हैं

पाँव से लग के खड़ी है ये ग़रीब-उल-वतनी

उस को समझाओ कि हम अपने वतन आए हैं

झाड़ लो गर्द-ए-मुसर्रत को बिठा लो दिल में

भूले-भटके हुए कुछ रंज ओ मेहन आए हैं

जब लहू रोए हैं बरसों तो खुली ज़ुल्फ़-ए-ख़याल

यूँ न इस नाग को लहराने के फ़न आए हैं

कुछ अजब रंग है इस आन तबीअत का 'नईम'

कुछ अजब तर्ज़ के इस वक़्त सुख़न आए हैं

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