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ग़म से बिखरा न पाएमाल हुआ - हसन नईम कविता - Darsaal

ग़म से बिखरा न पाएमाल हुआ

ग़म से बिखरा न पाएमाल हुआ

मैं तो ग़म से ही बे-मिसाल हुआ

वक़्त गुज़रा तो मौजा-ए-गुल था

वक़्त ठहरा तो माह-ओ-साल हुआ

हम गए जिस शजर के साए में

उस के गिरने का एहतिमाल हुआ

बस कि वहशत थी कार-ए-दुनिया से

कुछ भी हासिल न हस्ब-ए-हाल हुआ

सुन के ईरान के नए क़िस्से

कुछ अजब सूफ़ियों का हाल हुआ

जाने ज़िंदाँ में क्या कहा उस ने

जिस का कल रात इंतिक़ाल हुआ

किस लिए ज़ुल्म है रवा इस दम

जिस ने पूछा वो पाएमाल हुआ

जिस तअल्लुक़ पे फ़ख़्र था मुझ को

वो तअल्लुक़ भी इक वबाल हुआ

ऐ 'हसन' नेज़ा-ए-रफ़ीक़ाँ से

सर बचाना भी इक कमाल हुआ

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