दिल वो किश्त-ए-आरज़ू था जिस की पैमाइश न की
दिल वो किश्त-ए-आरज़ू था जिस की पैमाइश न की
सैर-ए-दुनिया के सिवा हम ने कोई ख़्वाहिश न की
मोतियों से चश्म-ओ-जाँ को आइना-ख़ाना किया
सीप के टुकड़ों से बाम-ओ-दर की आराइश न की
किस को फ़ुर्सत थी कि सुनता उस सफ़र का माजरा
जब उसी मंज़िल-नशीं के होंट ने जुम्बिश न की
उस ने जो भी रूप धारा उस ने जो भी दुख दिया
आदमी बनने की हम ने उस से फ़रमाइश न की
कुछ क़लम-बंदी से मुझ को आर था वर्ना 'नईम'
कब मिरे अब्र-ए-निगह ने फ़िक्र की बारिश न की
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