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बयान-ए-शौक़ बना हर्फ़-ए-इज़्तिराब बना - हसन नईम कविता - Darsaal

बयान-ए-शौक़ बना हर्फ़-ए-इज़्तिराब बना

बयान-ए-शौक़ बना हर्फ़-ए-इज़्तिराब बना

वो इक सवाल कि जिस का न कुछ जवाब बना

मैं एक बाब था अफ़साना-ए-वफ़ा का मगर

तुम्हारी बज़्म से उट्ठा तो इक किताब बना

मुझे सफ़ीर बना अपना कू-ब-कू ऐ इश्क़

किसे हवस है कि दुनिया में कामयाब बना

मैं जिस ख़याल को अपना जुनूँ समझता था

वही ख़याल ज़माने का हुस्न-ए-ख़्वाब बना

कभी तो वजह-ए-करम बन गई है ख़ुद्दारी

कभी नियाज़-तलब बाइस इताब बना

सरा-ए-दिल में जगह दे तो काट लूँ इक रात

नहीं ये शर्त कि मुझ को शरीक-ए-ख़्वाब बना

जो एक दाग़ की सूरत रहा शब-ए-उम्मीद

नुजूम-ए-दिल में वही दर्द आफ़्ताब बना

मुझे न ख़ाक में मिलने दे ऐ ग़म-ए-पिन्हाँ

जो बन सकूँ तो मुझे नक़्श-ए-ला-जवाब बना

मिज़ा से क़तरा ख़ुशी में छलक रहा था मगर

सुकूत-ए-लब से तिरे मौज-ए-इज़्तिराब बना

बने हैं ख़्वाब के झोंके नसीम-ए-ख़ुल्द-नशीं

सुलूक-ए-दहर जहाँ आतिश-ए-अज़ाब बना

बहुत क़रीब से देखा तो खो गए जल्वे

नज़र ही पर्दा बनी हुस्न ही हिजाब बना

जो मेरे दश्त-ए-जुनूँ में था फ़र्क़-ए-रू-ए-बहार

वही ख़िरद के ख़राबे में इक गुलाब बना

अमीर-ए-चर्ख़ का एहसाँ नहीं है मुझ पे 'नईम'

मुझे है नाज़ कि ज़र्रे से आफ़्ताब बना

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