कोई ग़मगीं कोई ख़ुश हो कर सदा देता रहा
कोई ग़मगीं कोई ख़ुश हो कर सदा देता रहा
रात शहर-ए-दिल का हर मंज़र सदा देता रहा
संगसारी की सज़ा ठहरी थी जिन के वास्ते
उन को पहले ही से हर पत्थर सदा देता रहा
मेरे कर्ब-ए-तिश्नगी पर रात शीशे रो पड़े
ख़ुश्क होंटों को मिरे साग़र सदा देता रहा
नश्शा-ए-सहरा-नवर्दी में तुझे कब होश था
तुझ को शहर-ए-गुल का इक इक घर सदा देता रहा
खो गई जब आँख 'नजमी' याद आया ख़्वाब में
हम को शायद इक परी-पैकर सदा देता रहा
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