इश्क़ को पास-ए-वफ़ा आज भी करते देखा
इश्क़ को पास-ए-वफ़ा आज भी करते देखा
एक पत्थर के लिए जी से गुज़रते देखा
पस्त ग़ारों के अँधेरों में जो ले जाती हैं
वो उड़ानें भी तो इंसान को भरते देखा
जभी लाई है सबा मौसम-ए-गुल की आहट
बर्ग अफ़्सुर्दा हुए शाख़ों को डरते देखा
तिरी दहलीज़ पे गर्दिश का गुज़र क्या मअनी
तुझ को जब देखा है कुछ बनते सँवरते देखा
बे-सदा ही सही पर संग-ए-सिफ़त हैं लम्हे
उन की आग़ोश में हर शय को बिखरते देखा
जो भी बीती सर-ए-फ़रहाद पे बीती 'नजमी'
किसी 'परवेज़' को तेशे से न मरते देखा
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