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आइने से न डरो अपना सरापा देखो - हसन नज्मी सिकन्दरपुरी कविता - Darsaal

आइने से न डरो अपना सरापा देखो

आइने से न डरो अपना सरापा देखो

वक़्त भी एक मुसव्विर है तमाशा देखो

कर लो बावर कोई लाया है अजाइब-घर से

जब किसी जिस्म पे हँसता हुआ चेहरा देखो

चाहिए पानी तो लफ़्ज़ों को निचोड़ो वर्ना

ख़ुश्क हो जाएगा अफ़्कार का पौदा देखो

शहर की भीड़ में शामिल है अकेला-पन भी

आज हर ज़ेहन है तन्हाई का मारा देखो

वो जो इक हसरत-ए-बे-नाम का सौदाई है

उस को पत्थर ने बड़ी दूर से ताका देखो

हद से बढ़ने की सज़ा देती है फ़ितरत सब को

शाम को कितना बढ़ा करता है साया देखो

अब तो सर फोड़ के मरना भी है मुश्किल 'नजमी'

हाए इस दौर में पत्थर भी है महँगा देखो

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