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यक़ीन टूट चुका है गुमान बाक़ी है - हसन कमाल कविता - Darsaal

यक़ीन टूट चुका है गुमान बाक़ी है

यक़ीन टूट चुका है गुमान बाक़ी है

हमारे सर पे अभी आसमान बाक़ी है

चले तो आए हैं हम ख़्वाब से हक़ीक़त तक

सफ़र तवील था अब तक तकान बाक़ी है

उन्हें ये ज़ो'म कि फ़रियाद का चलन न रहा

हमें यक़ीन कि मुँह में ज़बान बाक़ी है

हर एक सम्त से पथराव है मगर अब तक

लहूलुहान परिंदे में जान बाक़ी है

फ़साना शहर की ता'मीर का सुनाने को

गली के मोड़ पे टूटा मकान बाक़ी है

मिला न जो हमें क़ातिल की आस्तीं पे 'हसन'

उसी लहू का ज़मीं पे निशान बाक़ी है

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