बिसात दिल की भला क्या निगाह-ए-यार में है
बिसात दिल की भला क्या निगाह-ए-यार में है
ये शीशा टूट भी जाए तो किस शुमार में है
ये जानते हैं कि वो इस तरफ़ न आएगा
अजब मज़ा सा मगर उस के इंतिज़ार में है
बस एक ज़ख़्म-ए-ख़लिश उम्र-भर की तन्हाई
वही तो दोगे तुम्हारे जो इख़्तियार में है
वो खेल खेलने बैठे हैं ख़ात्मा जिस का
तुम्हारी जीत में है और हमारी हार में है
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