अपनी वज्ह-ए-बर्बादी जानते हैं हम लेकिन क्या करें बयाँ लोगो
अपनी वज्ह-ए-बर्बादी जानते हैं हम लेकिन क्या करें बयाँ लोगो
मस्लहत-परस्ती पर हर क़दम रहा हम को जुर्म का गुमाँ लोगो
ख़ैर हम तो काँटे थे और हमें कुचलना भी वक़्त का तक़ाज़ा था
फूल जिन को समझे थे अब सुना है उन से भी हैं वो सरगिराँ लोगो
जिस कै इश्क़ की हम पर तोहमतें लगाते हो उस हसीन पैकर पर
हम ने दिल ही खोया है तुम जो देखते शायद वार देते जाँ लोगो
क्या सबब बताएँ हम नाला-ए-शबाना का पूछ लो इन आँखों से
इस निगाह-ए-जादू में अपने हर तबस्सुम की हैं कहानियाँ लोगो
वक़्त की नज़ाकत का आज जो तक़ाज़ा है जुर्म कल न कहलाए
तोड़ दो ख़मोशी के आहनी हिसारों को खोल दो ज़बाँ लोगो
शे'र क्या ग़ज़ल कैसी ऐ 'हसन' ये फ़न है जिस को कुछ ही समझेंगे
ढूँढ पाओ तो ढूँढो इन छुपे इशारों में अपनी दास्ताँ लोगो
(1756) Peoples Rate This