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नज़र में मंज़र-ए-रफ़्ता समा भी सकता है - हसन जमील कविता - Darsaal

नज़र में मंज़र-ए-रफ़्ता समा भी सकता है

नज़र में मंज़र-ए-रफ़्ता समा भी सकता है

कोई भुलाया हुआ याद आ भी सकता है

मैं उस से रूठ गया हूँ मगर ये हक़ है उसे

मनाना चाहे तो मुझ को मना भी सकता है

मैं उस के रहम-ओ-करम पर हूँ एक मुद्दत से

जला भी सकता है मुझ को बुझा भी सकता है

ये इख़्तियार उसे दे दिया गया है कि वो

हिंसा भी सकता है मुझ को रुला भी सकता है

'हसन-जमील' बनाया था इस ने दिल से मुझे

किसी भी वक़्त मगर वो मिटा भी सकता है

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