देख आओ मरीज़-ए-फ़ुर्क़त को
रस्म-ए-दुनिया भी है सवाब भी है
Habib Jalib
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वो मुझ से बे-ख़बर हैं उन की आदत ही कुछ ऐसी है
अब्र है गुलज़ार है मय है ख़ुशी का दौर है
जल्वे तिरे जो रौनक़-ए-बाज़ार हो गए
उन का जल्वा नहीं देखा जाता
कौन कहता है कि आ कर देख लो
वो मन गए तो वस्ल का होगा मज़ा नसीब
पूछते जाते हैं ये हम सब से
जान अगर हो जान तो क्यूँ-कर न हो तुझ पर निसार
तुम भी हो ख़ंजर-ए-खुशाब भी है
किस ने सुनाया और सुनाया तो क्या सुना
बोले वो बोसा-हा-ए-पैहम पर