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राज़-ए-दिल लाते हैं ज़बाँ तक हम - हसन बरेलवी कविता - Darsaal

राज़-ए-दिल लाते हैं ज़बाँ तक हम

राज़-ए-दिल लाते हैं ज़बाँ तक हम

दुख भरें ऐ ख़ुदा कहाँ तक हम

और वो हम से खिंचते जाते हैं

मिन्नतें करते हैं जहाँ तक हम

न उड़ा बाग़बाँ कि गुलशन-ए-दिल

और हैं आमद-ए-ख़िज़ाँ तक हम

आप के लुत्फ़ ने तो क़हर किया

ख़ूब थे जौर-ए-आसमाँ तक हम

आसमाँ तक गया है सैल-ए-सरिश्क

दिल को रोया करें कहाँ तक हम

उन का आना भी अब नहीं मंज़ूर

जान से तंग हैं यहाँ तक हम

तेरा पैग़ाम भी सुना देंगे

ऐ 'हसन' पहुँचें तो वहाँ तक हम

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