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हुस्न जब मक़्तल की जानिब तेग़-ए-बुर्राँ ले चला - हसन बरेलवी कविता - Darsaal

हुस्न जब मक़्तल की जानिब तेग़-ए-बुर्राँ ले चला

हुस्न जब मक़्तल की जानिब तेग़-ए-बुर्राँ ले चला

इश्क़ अपने मुजरिमों को पा-ब-जौलाँ ले चला

ख़ून-ए-नाहक़ की हया बोली ज़रा मुँह ढाँक लो

नाज़ जब उन को सर-ए-ख़ाक-ए-शहीदाँ ले चला

ख़ाक-ए-आशिक़ रोकने को दूर तक लिपटी गई

जब समंद-ए-नाज़ को वो गर्म-जौलाँ ले चला

जब चली मक़्तल से क़ातिल की सवारी रात को

आगे आगे मिशअलें ख़ून-ए-शहीदाँ ले चला

आरज़ू-ए-दीद-ए-जानाँ बज़्म में लाई मुझे

बज़्म से मैं आरज़ू-ए-दीद-ए-जानाँ ले चला

ढूँडती थी हर तरफ़ किस को निगाह-ए-वापसीं

आस किस के दीद की बीमार-ए-हिज्राँ ले चला

नाज़-ए-आज़ादी 'हसन' वज्ह-ए-असीरी हो गया

मू-कशाँ दिल को ख़याल-ए-ज़ुल्फ़-ए-पैमाँ ले चला

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