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जो नक़्श-ए-बर्ग-ए-करम डाल डाल है उस का - हसन अज़ीज़ कविता - Darsaal

जो नक़्श-ए-बर्ग-ए-करम डाल डाल है उस का

जो नक़्श-ए-बर्ग-ए-करम डाल डाल है उस का

तो दश्त आग उगलता जलाल है उस का

दयार-ए-दीदा-ओ-दिल में मैं सोचता हूँ उसे

कि इस से आगे तसव्वुर मुहाल है उस का

अधूरी बात है ज़िक्र-ए-मुक़ीम-ए-शहर-ए-जुनूब

हर इक मुसाफ़िर-ए-राह-ए-शुमाल है उस का

बदन के दश्त में उस की ही गूँज है हर सू

जवाब उस के हैं हर इक सवाल है उस का

उसी का है ये भरा शहर दश्त-ए-ख़ाली भी

ये भीड़ उस की है क़हत-उर-रिजाल है उस का

मैं सोचता हूँ कि तस्वीर-ए-ख़ाक को मेरी

हज़ार रंग में रंगना कमाल है उस का

वो आइना भी 'हसन' उस के फ़न का जादू है

ये चेहरा भी हुनर-ए-ला-ज़वाल है उस का

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