फ़िक्र-ए-मंज़िल है न नाम-ए-रहनुमा लेते हैं हम

फ़िक्र-ए-मंज़िल है न नाम-ए-रहनुमा लेते हैं हम

अपना ज़ौक़-ए-रह-रवी ख़ुद आज़मा लेते हैं हम

कसरत-ए-ग़म में भी अक्सर मुस्कुरा लेते हैं हम

ज़ुल्मत-ए-हस्ती में यूँ शमएँ जला लेते हैं हम

कुछ न पूछो हिम्मतों से काम क्या लेते हैं हम

ग़म को बादा दिल को पैमाना बना लेते हैं हम

मुंतशिर होने को आती है जो बज़्म-ए-आरज़ू

हौसलों की फिर नई महफ़िल सजा लेते हैं हम

क़ाफ़िला आ कर सर-ए-मंज़िल भी हो जाता है गुम

राहज़न को जब कभी रहबर बना लेते हैं हम

ज़ुल्म-ए-दौराँ को अता करना है ताज़ा हौसला

तीर जो आता है सीने से लगा लेते हैं हम

क्यूँ मिज़ाज-ए-हुस्न में पैदा करें इक बरहमी

अपने दिल को अपना अफ़्साना सुना लेते हैं हम

इस क़दर चरके लगे हैं दहर में ऐ हम-नशीं

ख़ार क्या फूलों से भी दामन बचा लेते हैं हम

मुल्तफ़ित होता नहीं जब साक़ी-ए-दौराँ 'हसन'

मय-कदे में बढ़ के ख़ुद साग़र उठा लेते हैं हम

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