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सीने में चराग़ जल रहा है - हसन अख्तर जलील कविता - Darsaal

सीने में चराग़ जल रहा है

सीने में चराग़ जल रहा है

माथे से लहू उबल रहा है

होंटों पे चमन खिले हुए हैं

आँखों से धुआँ निकल रहा है

पैकर पे उगे हुए हैं काँटे

एहसास का पेड़ फल रहा है

बातिन में बपा है एक तूफ़ाँ

दरिया है कि रुख़ बदल रहा है

क्या वक़्त पड़ा है ऐ ग़म-ए-जाँ

ख़ुद अपना वजूद खल रहा है

मैं जिस की तलाश को चला था

वो शख़्स तो साथ चल रहा है

तन्हा हूँ 'जलील' इस नगर में

मक़्तल में चराग़ जल रहा है

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