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जलती हुई रुतों के ख़रीदार कौन हैं - हसन अख्तर जलील कविता - Darsaal

जलती हुई रुतों के ख़रीदार कौन हैं

जलती हुई रुतों के ख़रीदार कौन हैं

ऐ पैकर-ए-ग़ज़ल तिरे बीमार कौन हैं

ख़ुश्बू की साअ'तों के तलबगार कौन हैं

इस ज़ुल्फ़-ए-मुश्क-बू के गिरफ़्तार कौन हैं

कब तक छुपे रहेंगे अज़ल ख़ामुशी के भेद

शहर-ए-सदा के महरम-ए-असरार कौन हैं

किरनों की रहगुज़ार पे उड़ती है धूल सी

जो उस तरफ़ गए हैं वो जी-दार कौन हैं

सीनों में ले के वलवला-ए-ज़िंदगी की आग

अस्र-ए-रवाँ से बर-सर-ए-पैकार कौन हैं

सदियों से मुंतज़िर हैं सुलगती मसाफ़तें

आसाइश-ए-जुनूँ के तलबगार कौन हैं

सरमस्त कर गई जिन्हें अपने लहू की लय

वो अर्सा-ए-नबर्द के फ़नकार कौन हैं

में तो ग़रीब-ए-शहर-ए-सुख़न हूँ मगर 'जलील'

फ़रमाँ-रवा-ए-किश्वर-ए-इज़हार कौन हैं

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