उस इक उम्मीद को तो राहत-ए-सफ़र न समझ
उस इक उम्मीद को तो राहत-ए-सफ़र न समझ
है रास्ते में कहीं साया-ए-शजर न समझ
जो सामने न रहा उस का अक्स आँख में है
अब इतना ख़ाली भी ये कासा-ए-नज़र न समझ
जो रूह में न उतर जाए वो जमाल नहीं
जो दिल-गुदाज़ न कर दे उसे हुनर न समझ
नज़र परख दिल-ए-मजरूह नश्तरों पे न जा
हर आने वाले को तू अपना चारागर न समझ
जो फ़स्ल-ए-गुल की तमन्ना में हो गए बर्बाद
वो बा-मुराद हैं ग़म उन का बे-समर न समझ
हर एक घर में न जब तक चराग़ जल जाए
'कमाल' रौशन-ओ-आबाद अपना घर न समझ
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