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हुनर जो तालिब-ए-ज़र हो हुनर नहीं रहता - हसन अकबर कमाल कविता - Darsaal

हुनर जो तालिब-ए-ज़र हो हुनर नहीं रहता

हुनर जो तालिब-ए-ज़र हो हुनर नहीं रहता

महल-सरा में कोई कूज़ा-गर नहीं रहता

बिछड़ते वक़्त किसी से हमें भी था ये गुमाँ

कि ज़ख़्म कैसा भी हो उम्र-भर नहीं रहता

मैं अपने हक़ के सिवा माँगता अगर कुछ और

तो मेरे हर्फ़-ए-दुआ में असर नहीं रहता

कुछ और भी गुज़र-औक़ात के वसीले हैं

गदा ख़ज़ीना-ए-कशकोल पर नहीं रहता

वो कौन है जो मुसाफ़िर के साथ चलता है

ख़याल-ए-यार भी जब हम-सफ़र नहीं रहता

जिसे बनाते सजाते हैं जिस में रहते हैं

सवेरे आँख खुले तो वो घर नहीं रहता

खुली फ़ज़ा न रहे याद अगर परिंदों को

ग़म-ए-शिकस्तगी-ए-बाल-ओ-पर नहीं रहता

हम एक शब में कई ख़्वाब देखते हैं सो अब

वो आ के ख़्वाब में भी रात-भर नहीं रहता

'कमाल' लोग भी क्या हैं गुमाँ ये रखते हैं

जो बस गया हो कहीं दर-ब-दर नहीं रहता

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