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दिल में तिरे ख़ुलूस समोया न जा सका - हसन अकबर कमाल कविता - Darsaal

दिल में तिरे ख़ुलूस समोया न जा सका

दिल में तिरे ख़ुलूस समोया न जा सका

पत्थर में इस गुलाब को बोया न जा सका

बाक़ी हैं इस पे अब भी पुराने ग़मों के अक्स

चेहरा तो आँसुओं से भी धोया न जा सका

फूलों के जिस्म छेदने दालों से आज तक

ख़ुश्बू को बर्छियों में पिरोया न जा सका

क्या तर्जुमानी-ए-ग़म-ए-दुनिया करें कि जब

फ़न में ख़ुद अपना ग़म भी समोया न जा सका

शब-ख़ूँ की रस्म ऐसी पड़ी अहल-ए-शहर में

लोगों से लम्हा भर को भी सोया न जा सका

आँखों की बस्तियों में भी क्या क़हत-ए-अश्क था

चाहा 'कमाल' रोएँ तो रोया न जा सका

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