तिश्ना-कामों को यहाँ कौन सुबू देता है
गुल को भी हाथ लगाओ तो लहू देता है
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सुब्ह आँख खुलती है एक दिन निकलता है
दिल की दहलीज़ पे जब शाम का साया उतरा
अश्कों में पिरो के उस की यादें
कौन देखे मेरी शाख़ों के समर टूटे हुए
शहर-ए-ना-पुरसाँ में कुछ अपना पता मिलता नहीं
हम तीरगी में शम्अ जलाए हुए तो हैं
ऐ ख़ुदा इंसान की तक़्सीम-दर-तक़्सीम देख
सब उम्मीदें मिरे आशोब-ए-तमन्ना तक थीं
'हबीब-जालिब'