अश्कों में पिरो के उस की यादें
पानी पे किताब लिख रहा हूँ
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कुछ न कुछ तो होता है इक तिरे न होने से
'हबीब-जालिब'
सब उम्मीदें मिरे आशोब-ए-तमन्ना तक थीं
दिल की दहलीज़ पे जब शाम का साया उतरा
ऐ ख़ुदा इंसान की तक़्सीम-दर-तक़्सीम देख
शहर-ए-ना-पुरसाँ में कुछ अपना पता मिलता नहीं
सुब्ह आँख खुलती है एक दिन निकलता है
तिश्ना-कामों को यहाँ कौन सुबू देता है
याद-ए-याराँ दिल में आई हूक बन कर रह गई
हम तीरगी में शम्अ जलाए हुए तो हैं
कौन देखे मेरी शाख़ों के समर टूटे हुए
पल रहे हैं कितने अंदेशे दिलों के दरमियाँ