शहर-ए-ना-पुरसाँ में कुछ अपना पता मिलता नहीं

शहर-ए-ना-पुरसाँ में कुछ अपना पता मिलता नहीं

बाम-ओ-दर रौशन हैं लेकिन रास्ता मिलता नहीं

फ़स्ल-ए-गुल ऐसी कि अर्ज़ां हो गए काग़ज़ के फूल

अब कोई गुल-पैरहन ज़र्रीं-क़बा मिलता नहीं

आश्ना चेहरों से रंग-ए-आश्नाई उड़ गया

हम-ज़बाँ अब ख़ुश्क पत्तों के सिवा मिलता नहीं

एक सन्नाटा है शबनम से शुआ-ए-नूर तक

अब कोई आँचल पस-ए-मौज-ए-सबा मिलता नहीं

हाकिमों ने शहर के अंदर फ़सीलें खींच दीं

दिन में भी अब कोई दरवाज़ा खुला मिलता नहीं

इतने बे-परवा इरादे इतने बे-तौफ़ीक़ ग़म

हाथ उठते हैं मगर हर्फ़-ए-दुआ मिलता नहीं

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