दिल की दहलीज़ पे जब शाम का साया उतरा

दिल की दहलीज़ पे जब शाम का साया उतरा

उफ़ुक़-ए-दर्द से सीने में उजाला उतरा

रात आई तो अँधेरे का समुंदर उमडा

चाँद निकला तो समुंदर में सफ़ीना उतरा

पहले इक याद सी आई ख़लिश जाँ बन कर

फिर ये नश्तर रग-ए-एहसास में गहरा उतरा

जल चुके ख़्वाब तो सर नामा-ए-ताबीर खुला

बुझ गई आँख तो पलकों पे सितारा उतरा

सब उम्मीदें मिरे आशोब-ए-तमन्ना तक थीं

बस्तियाँ हो गईं ग़र्क़ाब तो दरिया उतरा

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