हसीन यादों के चाँद को अलविदा'अ कह कर
मैं अपने घर के अँधेरे कमरों में लौट आया
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निस्बतें थीं रेत से कुछ इस क़दर
सुनहरे ख़्वाब आँखों में बुना करते थे हम दोनों
उस अजनबी से हाथ मिलाने के वास्ते
घर से मेरा रिश्ता भी कितना रहा
ख़्वाब अपने मिरी आँखों के हवाले कर के
कभी जो आँखों के आ गया आफ़्ताब आगे
ख़फ़ा हो मुझ से तो अपने अंदर
मोहब्बत में कठिन रस्ते बहुत आसान लगते थे
ख़मोश रह कर पुकारती है
आज तेरी याद से टकरा के टुकड़े हो गया
वो ब'अद-ए-मुद्दत मिला तो रोने की आरज़ू में