इक परिंदे की तरह उड़ गया कुछ देर हुई
अक्स उस शख़्स का तालाब में आया हुआ था
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ख़फ़ा हो मुझ से तो अपने अंदर
उस अजनबी से हाथ मिलाने के वास्ते
रात-दिन पुर-शोर साहिल जैसा मंज़र मुझ में था
उदास शामों बुझे दरीचों में लौट आया
सुनहरे ख़्वाब आँखों में बुना करते थे हम दोनों
कभी जो आँखों के आ गया आफ़्ताब आगे
हसीन यादों के चाँद को अलविदा'अ कह कर
ख़्वाब अपने मिरी आँखों के हवाले कर के
मोहब्बत में कठिन रस्ते बहुत आसान लगते थे
घर से मेरा रिश्ता भी कितना रहा
आज तेरी याद से टकरा के टुकड़े हो गया