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रात ये कौन मिरे ख़्वाब में आया हुआ था - हसन अब्बासी कविता - Darsaal

रात ये कौन मिरे ख़्वाब में आया हुआ था

रात ये कौन मिरे ख़्वाब में आया हुआ था

सुब्ह में वादी-ए-शादाब में आया हुआ था

इक परिंदे की तरह उड़ गया कुछ देर हुई

अक्स उस शख़्स का तालाब में आया हुआ था

मैं भी उस के लिए बैठा रहा छत पर शब भर

वो भी मेरे लिए महताब में आया हुआ था

सर्द ख़ित्ते में सुलगता हुआ जंगल था बदन

आग से निकला तो बर्फ़ाब में आया हुआ था

ये तो सद-शुक्र ख़यालों ने तिरे खींच लिया

मैं तो हालात के गिर्दाब में आया हुआ था

याद हैं दिल को मोहब्बत के शब-ओ-रोज़ 'हसन'

गाँव जैसे कोई सैलाब में आया हुआ था

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