घर से मेरा रिश्ता भी कितना रहा
घर से मेरा रिश्ता भी कितना रहा
उम्र भर इक कोने में बैठा रहा
अपने होंटों पर ज़बाँ को फेर कर
आँसुओं के ज़ाइक़े चखता रहा
वो भी मुझ को देख कर जीता था और
मैं भी उस की आँख में ज़िंदा रहा
निस्बतें थीं रेत से कुछ इस क़दर
बादलों के शहर में प्यासा रहा
शहर में सैलाब का था शोर कल
और मैं तह-ख़ाने में सोया रहा
खा रही थी आग जब कमरा 'हसन'
मैं बस इक तस्वीर से चिमटा रहा
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