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ज़मीं सरकती है फिर साएबान टूटता है - हसन अब्बास रज़ा कविता - Darsaal

ज़मीं सरकती है फिर साएबान टूटता है

ज़मीं सरकती है फिर साएबान टूटता है

और उस के बा'द सदा आसमान टूटता है

मैं अपने-आप में तक़्सीम होने लगता हूँ

जो एक पल को कभी तेरा ध्यान टूटता है

कोई परिंदा सा पर खोलता है उड़ने को

फिर इक छनाके से ये ख़ाक-दान टूटता है

जिसे भी अपनी सफ़ाई में पेश करता हूँ

वही गवाह वही मेहरबान टूटता है

न हम में हौसला-ए-ख़ुद-कुशी कि मर जाएँ

न हम से क़ुफ़्ल-ए-दर-ए-पासबान टूटता है

ज़कात-ए-इश्क़ अगर बाँटने पे आ जाऊँ

तो इक हुजूम-ए-तलब मुझ पे आन टूटता है

जो आँधियाँ सर-ए-सहरा-ए-हिज्र उठती हैं

उन आँधियों में 'रज़ा' नख़्ल-ए-जान टूटता है

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