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सीने की ख़ानक़ाह में आने नहीं दिया - हसन अब्बास रज़ा कविता - Darsaal

सीने की ख़ानक़ाह में आने नहीं दिया

सीने की ख़ानक़ाह में आने नहीं दिया

हम ने उसे चराग़ जलाने नहीं दिया

दुज़दान-ए-नीम-शब ने भी हीले बहुत किए

लेकिन किसी को ख़्वाब चुराने नहीं दिया

अब के शिकस्त-ओ-रेख़्त का कुछ और है सबब

अब के ये ज़ख़्म तेरी जफ़ा ने नहीं दिया

इस बार तो सवाल भी मुश्किल न था मगर

इस बार भी जवाब क़ज़ा ने नहीं दिया

क्या शख़्स था उड़ाता रहा उम्र भर मुझे

लेकिन हवा से हाथ मिलाने नहीं दिया

मुमकिन है वज्ह-ए-तर्क-ए-त'अल्लुक़ उसी में हो

वो ख़त जो मुझ को बाद-ए-सबा ने नहीं दिया

इस हैरती नज़र की सिमटती गिरफ़्त ने

उठता हुआ क़दम भी उठाने नहीं दिया

शाम-ए-विदाअ थी मगर उस रंग-बाज़ ने

पाँव पे होंट रख दिए जाने नहीं दिया

कुछ तो 'हसन' वो दाद-ओ-सितद के खरे न थे

कुछ हम ने भी ये क़र्ज़ चुकाने नहीं दिया

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