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न आरज़ुओं का चाँद चमका न क़ुर्बतों के गुलाब महके - हसन अब्बास रज़ा कविता - Darsaal

न आरज़ुओं का चाँद चमका न क़ुर्बतों के गुलाब महके

न आरज़ुओं का चाँद चमका न क़ुर्बतों के गुलाब महके

न हिजरतों का अज़ाब सहते हुए मुसाफ़िर घरों को लौटे

न आँगनों में दरख़्त-ए-जाँ पर विसाल-मौसम का बोर जागा

न डाली डाली किसी परिंदे ने ख़ुशबुओं के तराने छेड़े

वरक़ वरक़ ज़ाइचों में तहरीर एक से थे जवाब लेकिन

सवाल चखने की ख़ाम ख़्वाहिश में हम ने क्या क्या अज़ाब चख्खे

बस एक ढलवान दरमियाँ है और उस से आगे खुला जहन्नम

न जाने किस पल की एक लग़्ज़िश अज़ाब सदियाँ समेट लाए

हमें ख़बर है कि अपने घर के चराग़ कोई घड़ी हैं लेकिन

हमें यक़ीं है कि रौशनी की नवेद सुनने तलक जलेंगे

क़बीले वालो उठो! और अपना बचाव कर लो, कि मैं ने कल शब

फ़सील-ए-शहर-ए-अमाँ के बाहर नक़ब-ज़नों के गिरोह देखे

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