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गुलाब-ए-सुर्ख़ से आरास्ता दालान करना है - हसन अब्बास रज़ा कविता - Darsaal

गुलाब-ए-सुर्ख़ से आरास्ता दालान करना है

गुलाब-ए-सुर्ख़ से आरास्ता दालान करना है

फिर इक शाम-ए-विसाल-आगीं तुझे मेहमान करना है

सिवा तेरे हर इक शय को हटा देना है मंज़र से

और इस के ब'अद ख़ुद को बे-सर-ओ-सामान करना है

मैं अपना दश्त अपने साथ ले कर घर से निकला हूँ

फ़ना करना है ख़ुद को और अलल-ऐलान करना है

वफ़ा के गोश्वारे में मिरा पहला ख़सारा तू

तिरे ही नाम पर दर्ज आख़िरी नुक़सान करना है

मैं तेरी बारगह में नक़्द-ए-जाँ तक नज़्र कर आया

तो क्या कुछ और भी मुझ को अदा तावान करना है

'हसन' को बेवफ़ा कहने में दुख तो होगा तुझ को भी

मगर ये कार-ए-मुश्किल तू ने मेरी जान करना है

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