कुछ अजीब आलम है होश है न मस्ती है
कुछ अजीब आलम है होश है न मस्ती है
ये तवील तन्हाई साँप बन के डसती है
नग़्मा-ए-तबस्सुम से लब हैं अब भी ना-महरम
शाख़-ए-आरज़ू अब भी फूल को तरसती है
हम ग़रीब क्या जानें मोल ज़िंदगानी का
हम को क्या पता ये शय महँगी है कि सस्ती है
आओ हम भी देखेंगे इस दयार में चल कर
कैसे लोग रहते हैं किस तरह की बस्ती है
ख़ूब-रू तमन्नाएँ ख़ुश-लिबास उम्मीदें
शहर-ए-दिल की बस्ती भी क्या हसीन बस्ती है
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