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हुस्न-ए-मुख़्तार सही इश्क़ भी मजबूर नहीं - हसन आबिद कविता - Darsaal

हुस्न-ए-मुख़्तार सही इश्क़ भी मजबूर नहीं

हुस्न-ए-मुख़्तार सही इश्क़ भी मजबूर नहीं

ये जफ़ाओं पे जफ़ा अब मुझे मंज़ूर नहीं

ज़ुल्फ़-ए-ज़ंजीर सही दिल भी गिरफ़्तार मगर

मैं तिरे हल्क़ा-ए-आदाब का महसूर नहीं

दिल का सौदा है जो पट जाए तो बेहतर वर्ना

मैं भी मजबूर नहीं आप भी मजबूर नहीं

दामन-ए-दिल से ये बेगाना-रवी इतना गुरेज़

तुम तो इक फूल हो काँटों का भी दस्तूर नहीं

चंद जाम और कि मैख़ाना-ए-जाँ तक पहुँचें

ढूँडने वाले मुझे मुझ से बहुत दूर नहीं

सब लिबासों में हैं पोशीदा गुनाहों की तरह

दिल-ए-बेबाक भी महफ़िल के तईं और नहीं

हर सुख़न होश का है मुफ़्ती-ए-हैरान के साथ

सब पिए बैठे हैं और कोई भी मख़मूर नहीं

सब रसन-बस्ता-ए-आज़ादी-ए-ईमान हुए

अब कोई मेरे सिवा बंदा-ए-मजबूर नहीं

उस से मिल कर भी उदास उस की जुदाई भी गराँ

दिल ब-हर-हाल किसी तौर भी मसरूर नहीं

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