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हम तीरगी में शम्अ' जलाए हुए तो हैं - हसन आबिद कविता - Darsaal

हम तीरगी में शम्अ' जलाए हुए तो हैं

हम तीरगी में शम्अ' जलाए हुए तो हैं

हाथों में सुर्ख़ जाम उठाए हुए तो हैं

उस जान-ए-अंजुमन के लिए बे-क़रार दिल

आँखों में इंतिज़ार सजाए हुए तो हैं

मीलाद हो कि मज्लिस-ए-ग़म मुब्तला तिरे

आँगन में दिल के फ़र्श बिछाए हुए तो हैं

ज़र्ब-ए-हरम ने शौक़-ए-जुनूँ को बढ़ा दिया

सीने से हम बुतों को लगाए हुए तो हैं

दुनिया कहाँ थी पास विरासत के ज़िम्न में

इक दीन था सो उस पे लुटाए हुए तो हैं

कब चोबदार पर हों सर-अफ़राज़ देखिए

उस शोख़ की निगाह में आए हुए तो हैं

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