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गुल हुए चाक-गरेबाँ सर-ए-गुलज़ार ऐ दिल - हसन आबिद कविता - Darsaal

गुल हुए चाक-गरेबाँ सर-ए-गुलज़ार ऐ दिल

गुल हुए चाक-गरेबाँ सर-ए-गुलज़ार ऐ दिल

बन गया रंग-ए-चमन बाइस-ए-आज़ार ऐ दिल

शम्अ'-रू हो गए फ़ानूस-ए-हरम के क़ैदी

अब कहाँ रौशनी-ए-गर्मी-ए-बाज़ार ऐ दिल

सिलसिला आतिश-ए-सोज़ाँ का है दरपेश जुनूँ

अब न दीवार न है साया-ए-दीवार ऐ दिल

शीशा-ए-ख़्वाब जो टूटा तो वो आसार गए

चश्म-ए-बेदार भी है नर्गिस-ए-बीमार ऐ दिल

हल्क़ा-ए-दीद में है पैकर-ए-मंज़र भी असीर

हम हुए अपनी ही आँखों के गिरफ़्तार ऐ दिल

जल्वा-ए-हुस्न-ए-तमन्ना है उन्हें अक्स-ए-जमाल

जो सराबों में हैं सहरा के गिरफ़्तार ऐ दिल

रास आई हमें शब-गर्दी-ओ-बे-राह-रवी

ख़ूब आज़ाद हुए तेरे गिरफ़्तार ऐ दिल

शाम के साए लपकते चले आते हैं सो अब

जो भी कुछ है वो है गिरती हुई दीवार ऐ दिल

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