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इस्तिआ'रा - हारिस ख़लीक़ कविता - Darsaal

इस्तिआ'रा

इस्तिआ'रा

उदास रातों की तीरगी में

अगर कोई नग़्मा-रेज़ ताइर

ख़ुद अपनी मर्ज़ी से राह भूला हुआ परिंदा

कि जिस का नन्हा सा दिल

मोहब्बत के सारे जज़्बों से आश्ना हो

कि जिस के पर दुख चुके हों लेकिन

वो उड़ रहा हो

नई फ़ज़ाओं को ढूँढता हो

मैं उस को आवाज़ दे रहा हूँ

वही तो है मेरा इस्तिआ'रा

मैं चाहता हूँ कि साथ मेरे

वो गीत गाए

नई रुतों के मोहब्बतों के

ज़मीं को ख़ुश-रंग करने वाली

तमाम गुल-रेज़ साअ'तों के

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