कंगाल
तुम्हें भी मा'लूम है मुझे भी
कि पास मेरे तो कुछ नहीं है
जो ज़र-परस्ती के इस जहाँ में
मुझे भी कुछ मो'तबर बना दे
न क़ीमती है लिबास मेरा
न माल-ओ-दौलत ज़र-ओ-जवाहर
कि जिन में तुम को शरीक कर लूँ
मिरी तो दौलत अजीब सी है
मिरी मता-ए-जहाँ में तुम को
बहुत सी रुस्वाइयाँ मिलेंगी
वफ़ा के आँसू गुमाँ की ख़ुशियाँ
जुनूँ की दानाइयाँ मिलेंगी
मिठास में तल्ख़ियाँ मिलेंगी
क़लम की सच्चाइयाँ मिलेंगी
ख़ुलूस-ए-जज़्बात की लगन की
अथाह गहराइयाँ मिलेंगी
मिरी तो दौलत अजीब सी है
अगर कहो तो शरीक कर लूँ
तुम्हें भी अपनी मता-ए-दिल में
कि पास मेरे तो कुछ नहीं है
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