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कंगाल - हारिस ख़लीक़ कविता - Darsaal

कंगाल

तुम्हें भी मा'लूम है मुझे भी

कि पास मेरे तो कुछ नहीं है

जो ज़र-परस्ती के इस जहाँ में

मुझे भी कुछ मो'तबर बना दे

न क़ीमती है लिबास मेरा

न माल-ओ-दौलत ज़र-ओ-जवाहर

कि जिन में तुम को शरीक कर लूँ

मिरी तो दौलत अजीब सी है

मिरी मता-ए-जहाँ में तुम को

बहुत सी रुस्वाइयाँ मिलेंगी

वफ़ा के आँसू गुमाँ की ख़ुशियाँ

जुनूँ की दानाइयाँ मिलेंगी

मिठास में तल्ख़ियाँ मिलेंगी

क़लम की सच्चाइयाँ मिलेंगी

ख़ुलूस-ए-जज़्बात की लगन की

अथाह गहराइयाँ मिलेंगी

मिरी तो दौलत अजीब सी है

अगर कहो तो शरीक कर लूँ

तुम्हें भी अपनी मता-ए-दिल में

कि पास मेरे तो कुछ नहीं है

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