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उस दिन - हारिस ख़लीक़ कविता - Darsaal

उस दिन

बसें चलती रहेंगी अपने रूटों पर

ट्रेलर यूँही बंदर-गाह से सामान लाएँगे

जहाज़ों और ट्रेनों के

शेड्यूल और टाइम-टेबल में

न कोई फ़र्क़ आएगा

न कोई मसअला होगा

दुकानों कार-ख़ानों दफ़्तरों में

हाज़िरी मामूल की होगी

डबल-रोटी बनेगी और तन्नूरों में

ख़मीरी रोग़नी सादी

सभी अक़साम की रोटी लगेगी

और शिकम-सेरी की ख़ातिर पीत्ज़ा बर्गर सिरी-पाए नहारी के

बनाने और पकाने में

ज़रा भी जो कमी होगी

मैं जिस दिन मर गया उस दिन

रक़ीक़-उल-क़ल्ब हैं जो चाहने वाले

बहुत रो रो के अपना शाम इक

बर्बाद कर लेंगे

जो जज़्बाती नहीं इतने

वो कुछ पीते हुए इस रात मुझ को याद कर लेंगे

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