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ग़म-ज़दा ज़िंदगी रही न रही - हरी मेहता कविता - Darsaal

ग़म-ज़दा ज़िंदगी रही न रही

ग़म-ज़दा ज़िंदगी रही न रही

ख़ुश रहे हम ख़ुशी रही न रही

ज़िंदगी की हसीन राहों में

छाँव ठंडी कभी रही न रही

चाँद-तारों में ज़िंदगी काटी

आप को याद भी रही न रही

राह-ए-मस्ती में वो चराग़ मिले

जल गए रौशनी रही न रही

जब कोई राह पर लगा ही नहीं

रहबरी रहबरी रही न रही

रह गई बात आप की चलिए

मेरी वक़अत रही रही न रही

दे के उम्मीद पूछते हैं मुझे

दिल में हसरत कोई रही न रही

उम्र गुज़री गुनाह-गारी में

फ़िक्र अंजाम की रही न रही

अपने मरकज़ पे आ गया हूँ 'हरी'

ग़म नहीं ज़िंदगी रही न रही

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