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कलियों का तबस्सुम हो, कि तुम हो कि सबा हो - हरी चंद अख़्तर कविता - Darsaal

कलियों का तबस्सुम हो, कि तुम हो कि सबा हो

कलियों का तबस्सुम हो, कि तुम हो कि सबा हो

इस रात के सन्नाटे में, कोई तो सदा हो

यूँ जिस्म महकता है हवा-ए-गुल-ए-तर से!

जैसे कोई पहलू से अभी उठ के गया हो

दुनिया हमा-तन-गोश है, आहिस्ता से बोलो

कुछ और क़रीब आओ, कोई सुन न रहा हो

ये रंग, ये अंदाज़-ए-नवाज़िश तो वही है

शायद कि कहीं पहले भी तू मुझ से मिला हो

यूँ रात को होता है गुमाँ दिल की सदा पर

जैसे कोई दीवार से सर फोड़ रहा हो

दुनिया को ख़बर क्या है मिरे ज़ौक़-ए-नज़र की

तुम मेरे लिए रंग हो, ख़ुशबू हो, ज़िया हो

यूँ तेरी निगाहों में असर ढूँड रहा हूँ

जैसे कि तुझे दल के धड़कने का पता हो

इस दर्जा मोहब्बत में तग़ाफ़ुल नहीं अच्छा

हम भी जो कभी तुम से गुरेज़ाँ हों तो क्या हो

हम ख़ाक के ज़र्रों में हैं 'अख़्तर' भी, गुहर भी

तुम बाम-ए-फ़लक से, कभी उतरो तो पता हो

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