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जिस ज़मीं पर तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा होता है - हरी चंद अख़्तर कविता - Darsaal

जिस ज़मीं पर तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा होता है

जिस ज़मीं पर तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा होता है

एक इक ज़र्रा वहाँ क़िबला-नुमा होता है

काश वो दिल पे रखे हाथ और इतना पूछे

क्यूँ तड़प उठता है क्या बात है क्या होता है

बज़्म-ए-दुश्मन है ख़ुदा के लिए आराम से बैठ

बार बार ऐ दिल-ए-नादाँ तुझे क्या होता है

मेरी सूरत मिरी हालत मिरी रंगत देखी

आप ने देख लिया इश्क़ में क्या होता है

ऐ सबा ख़ार-ए-मुग़ीलाँ को सुना दे मुज़्दा

आज़िम-ए-दश्त कोई आबला-पा होता है

हम जो कहते हैं हमेशा ही ग़लत कहते हैं

आप का हुक्म दुरुस्त और बजा होता है

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