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जहाँ तुझ को बिठा कर पूजते हैं पूजने वाले - हरी चंद अख़्तर कविता - Darsaal

जहाँ तुझ को बिठा कर पूजते हैं पूजने वाले

जहाँ तुझ को बिठा कर पूजते हैं पूजने वाले

वो मंदिर और होते हैं शिवाले और होते हैं

दहान-ए-ज़ख़्म से कहते हैं जिन को मर्हबा बिस्मिल

वो ख़ंजर और होते हैं वो भाले और होते हैं

जिन्हें महरूमी-ए-तासीर ही अस्ल-ए-तमन्ना है

वो आहें और होती हैं वो नाले और होते हैं

जिन्हें हासिल है तेरा क़ुर्ब ख़ुश-क़िस्मत सही लेकिन

तिरी हसरत लिए मर जाने वाले और होते हैं

जो ठोकर ही नहीं खाते वो सब कुछ हैं मगर वाइज़

वो जिन को दस्त-ए-रहमत ख़ुद सँभाले और होते हैं

तलाश-ए-शम्अ से पैदा है सोज़-ए-ना-तमाम 'अख़्तर'

ख़ुद अपनी आग में जल जाने वाले और होते हैं

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