दश्त में मिस्ल सदा के थे
दश्त में मिस्ल सदा के थे
क्या क्या नक़्श वफ़ा के थे
तोड़ गए जो का'बा-ए-दिल
बंदे ख़ास ख़ुदा के थे
साल महीने दिन और रात
झोंके चार हवा के थे
मुझ बे-घर के पास रहे
जितने सैल बला के थे
मैं भी 'तसव्वुर' उन में था
जिन के तीर ख़ता के थे
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