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सुकून - हरबंस मुखिया कविता - Darsaal

सुकून

एक तवील उम्र

तुम और मैं

अपने अपने घरों में बंद थे

जहाँ ज़िंदगी ने कड़े पहरे लगा रक्खे थे

उसूलों के रिश्तों के और फ़राएज़ के

इस तमाम मुद्दत में

जो शायद सत्तरह बरस थी या सत्तर

एक दूसरे की साँस की आवाज़ ने

हमें तपिश दी

आवाज़ जो बहुत हल्की बहुत मद्धम थी

तपिश जो दूर थरथराती लौ से भी मुलाएम

और एक दिन

साँसों की तपिश

और थरथराती लौ की आग में

ज़िंदगी के सारे पहरे मोम की तरह पिघल गए

वीरान घर में गुलाब के रंग

और मोतिया की ख़ुश्बू का इज़्तिराब बिखर गया

जिस ने हमारी पुर-सुकून ख़ामोशी

को रेज़ा रेज़ा कर दिया

आओ आज फिर हम

तुम और मैं

अपने पैरों के इर्द-गिर्द

हल्की हल्की लकीरों के दाएरे खींचे लें

ये लकीरें शायद कभी दीवार बन जाएँ

और हम फिर अपने अपने घरों में

सुकून की नींद सो सकीं

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