फिर उन की याद के दीपक जलाए हैं मैं ने

फिर उन की याद के दीपक जलाए हैं मैं ने

कि ख़ुफ़्ता हसरत-ओ-अरमाँ जगाए हैं मैं ने

ज़माना जिन के तसव्वुर से ही लरज़ उठ्ठे

क़लील उम्र में वो ग़म उठाए हैं मैं ने

ग़म-ओ-अलम के समुंदर में डूब कर अक्सर

नशात-ओ-ऐश के नग़्मात गाए हैं मैं ने

नहीं नहीं है नहीं क़ाबिल-ए-यक़ीं कोई

ख़ुदा के बंदे बहुत आज़माए हैं मैं ने

हुआ है आज ये इक लम्हा-ए-तरब हासिल

वगरना आँसू ही आँसू बहाए हैं मैं ने

'जमाल' तल्ख़ तजरबात बुग़्ज़-ओ-नफ़रत से

तराने मेहर-ओ-वफ़ा के सुनाए हैं मैं ने

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