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कौन है जो न हुआ बंदिश-ए-ग़म से आज़ाद - हरबंस लाल अनेजा 'जमाल' कविता - Darsaal

कौन है जो न हुआ बंदिश-ए-ग़म से आज़ाद

कौन है जो न हुआ बंदिश-ए-ग़म से आज़ाद

जुज़ मिरे कौन रहा दहर में नाकाम-ए-मुराद

सौंप दूँ क्यूँ न ब-दामान-ए-तलातुम कश्ती

किस की कब सुनते हैं बे-रहम किनारे फ़रियाद

मुझ से मत छीन ये जागीर-ए-ग़म-ओ-रंज नदीम

है फ़क़त इस से ही कौनैन-ए-दिल-ओ-जान आबाद

दिल के गुलज़ार में खिल उठती है दाग़ों की कली

जब भी आती है किसी गुल-रुख़-ओ-गुल-फ़ाम की याद

अब न माज़ी ही का ग़म है न तो फ़र्दा की ख़ुशी

ख़ाना-ए-दिल को किया तुम ने कुछ ऐसा बर्बाद

एक लम्हा भी मसर्रत का मयस्सर न हुआ

जाने किस वक़्त मोहब्बत की रखी थी बुनियाद

ग़म ग़लत करने को आया था तिरे दर पे 'जमाल'

क्या ख़बर थी कि नहीं तू भी ग़मों से आज़ाद

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