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फ़ैज़-ए-दिल से मुतरिब-ए-कामिल हुआ जाता हूँ मैं - हरबंस लाल अनेजा 'जमाल' कविता - Darsaal

फ़ैज़-ए-दिल से मुतरिब-ए-कामिल हुआ जाता हूँ मैं

फ़ैज़-ए-दिल से मुतरिब-ए-कामिल हुआ जाता हूँ मैं

बाइ'स-ए-रंगीनी-ए-महफ़िल हुआ जाता हूँ मैं

किस लिए ये शिकवा-ए-महरूमी-ए-कैफ़-ओ-निशात

ख़ूगर-ए-आलाम ख़ुद ऐ दिल हुआ जाता हूँ मैं

इस क़दर मख़मूर हूँ तेरी निगाह-ए-मस्त से

चाह में मंज़िल की ख़ुद मंज़िल हुआ जाता हूँ मैं

बहर-ए-हस्ती में मज़ा देने लगे तूफ़ाँ भी अब

ऐ नदीम आसूदा-ए-साहिल हुआ जाता हूँ मैं

बे-सदा से हो गए हम-साज़ सब तार-ए-नफ़स

उफ़ शिकस्ता सा रबाब-ए-दिल हुआ जाता हूँ मैं

अहल-ए-फ़न अहल-ए-हुनर दिल खोल कर देते हैं दाद

माहिर-ए-फ़न शाइ'र-ए-कामिल हुआ जाता हूँ मैं

ऐ 'जमाल' आपस में क्या अक़्ल-ओ-जुनूँ का रब्त है

जाम-ए-वहशत पी के भी आक़िल हुआ जाता हूँ मैं

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