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साक़िया ऐसा पिला दे मय का मुझ को जाम तल्ख़ - हक़ीर कविता - Darsaal

साक़िया ऐसा पिला दे मय का मुझ को जाम तल्ख़

साक़िया ऐसा पिला दे मय का मुझ को जाम तल्ख़

ज़िंदगी दुश्वार हो और हो मुझे आराम तल्ख़

मैं तो शीरीं-तर शकर से भी समझता हूँ उसे

जब वो देते हैं बुरा कह कर मुझे दुश्नाम तल्ख़

बज़्म-ए-मय में ज़िक्र तक आने नहीं देते हैं वो

है हमारा नाम गोया ज़हर का इक जाम तल्ख़

क्या सबब लेते नहीं वो नाम तक मेरा कभी

ख़ौफ़ इस का है न हो जाएँ ज़बान-ओ-काम तल्ख़

इश्क़ के फंदे से बचिए ऐ 'हक़ीर'-ए-ख़स्ता-दिल

इस का है आग़ाज़ शीरीं और है अंजाम तल्ख़

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